सोमवार की आरती कथा-विधि : सोमवार के व्रत की विधि और सोमवार व्रत की कथा और आरती किस प्रकार से कैसे करें ! हमारे सनातन में हर वार की व्रत कथा और आरती का महत्त्व बताया गया है ! सप्तवार व्रत कथा के बारे में जानने के लिए हम एक सप्तवार व्रत कथा की सीरिज ला रहे है ! इसको पढ़कर आप इसके महत्त्व को जाने !
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सोमवार की आरती कथा-विधि :- सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे पहर तक होता है। व्रत में फलहार या परायण का कोई खास नियम नहीं है ! किन्तु यह आवश्यक है कि दिन रात में केवल एक समय भोजन करें ! सोमवार के व्रत में शिव और पार्वती जी का पूजन करना चाहिए ! सोमवार के व्रत तीन प्रकार के होते हैं !
तीनों व्रत की विधि एक जैसी ही है। ! शिव और पार्वती जी के पूजन के बाद कथा अवश्य सुननी चाहिए ! व्रत कथा, प्रदोष व्रत कथा तथा सोलह सोमवार व्रत कथा तीनों अलग-अलग हैं ! जो आगे बताई गईं हैं !
सोमवार की आरती कथा-विधि :- एक नगर में बहुत धनवान साहूकार रहता था ! उसके पास धन की कमी नहीं थी ! परन्तु पुत्र न होने के कारण वह बहुत दुःखी रहता था ! इसी चिन्ता में वह साहूकार दिन-रात दुःखी रहता था ! पुत्र की प्राप्ति के लिए वह हर सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन करता था ! तथा सायंकाल के समय वह मन्दिर में जाकर शिवजी के सामने दीपक जलाया करता था !
साहूकार की इस भक्तिभाव को देखकर एक समय माँ पार्वती ने भगवान शिवजी से कहा- प्रभु यह साहूकार आपका परम भक्त हैं ! जो सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा और नियम से करता हैं ! आपको इस भक्त की मनोकामना अवश्य पूर्ण करनी चाहिए !
तब शिवजी ने माँ पार्वती जी से कहा- हे पार्वती यह संसार कर्मक्षेत्र है ! किसान जैसा बीज खेत में बोता हैं, वैसी ही फसल वह पाता है ! उसी तरह मनुष्य इस संसार में जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं ! ऐसा सुनने के बाद माता पार्वती ने अत्यन्त आग्रह से कहा भगवान – जब यह आपका अनन्य भक्त हैं, और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है, तो आपको इसके दुःख का अवश्य निवारण करना चाहिए !
परन्तु हे पार्वती वह पुत्र केवल 12 वर्ष की अल्प आयु तक जीवित रहेगा ! इसके पश्चात वह बालक मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा ! इससे अधिक मैं इसके लिए कुछ नहीं कर सकता ! माँ पार्वती और भगवान शिव का यह वार्तालाप साहूकार सुन रहा था ! इससे साहूकार को न तो कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ ! वह पहली की तरह नित्य शिवजी का व्रत और पूजन करता रहा !
भगवान शिव जी की कृपा से कुछ समय बाद साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई ! और नो महीने बाद उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ ! पुत्र जन्म से साहूकार के घर में बहुत खुशीयां मनाई गई। लेकिन साहूकार जानता था कि उसके पुत्र की आयु केवल बारह वर्ष की है ! इसलिए उसने अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की, और न ही किसी को इस भेद के बारे में बताया !
दोनों मामा-भांजे यज्ञ और ब्राह्मणों को भोजन कराते तथा दक्षिणा देते हुये काशी की ओर चल पडे ! और आगे उनके रास्ते में एक बहुत ही सुन्दर शहर आया ! उस शहर के राजा की कन्या का विवाह हो रहा था ! परन्तु विवाह करने के लिए जो राजकुमार आया था वह एक आँख से काना था !
राजकुमार के पिता राजा को इस बात की बड़ी चिन्ता थी ! कि कहीं राजकुमार को देख राजकुमारी तथा उसके माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें !
सभी कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया ! राजकुमार के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाए तो क्या बुराई है ? ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा-यदि आप फेरों और कन्यादान के काम को भी करा दो तो आपकी हम पर बड़ी कृपा होगी ! मैं इसके बदले आपको बहुत सारा धन दूंगा ! दोनों ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया !
और विवाह कार्य बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया ! मगर सेठ का पुत्र जिस समय जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया-‘तेरा विवाह मेरे साथ हुआ परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आँख से काना है !
उसने अपने माता-पिता को सारी बात बता दी ! और कहा कि यह मेरा पति नहीं है ! मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है। जिसके साथ मेरा विवाह हुआ है, वह तो काशी पढ़ने गया है ! राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस कर दी !
उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुँच गए ! वहाँ जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया ! जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई ! उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था ! लड़के ने अपने मामा से कहा-‘मामाजी, आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है !
तब मामा ने कहा- ठीक हैं तुम अन्दर जाकर आराम करो ! लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में शिव जी के कहे अनुसार उसके प्राण निकल गए !
संयोगवश उसी समय शिवजी -पार्वतीजी उधर से जा रहे थे ! जब उन्होंने जोर-जोर से रोने की आवाज सुनी तो पार्वती कहने लगीं- भगवान ! कोई दुखिया रो रहा है ! इसके कष्ट को दूर कीजिए ! जब शिव-पार्वतीजी वहाँ पहुँचे तो उन्होंने देखा कि वहाँ एक लड़का मृत पड़ा था ! माता पार्वती कहने लगीं- प्रभु यह तो उसी साहूकार का लड़का है, जो आपके वरदान से उत्पन्न हुआ था !
‘शिवजी ने कहा-‘हे पार्वती! इसकी आयु इतनी ही थी ! जो बालक यह भोग चुका ! तब पार्वती जी ने कहा-‘हे महादेव ! इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प-तड़पकर मर जाएँगे ! माता पार्वती के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन का वरदान दिया ! शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया ! शिवजी और पार्वतीजी फिर कैलाश पर्वत को चल पड़े !
शिक्षा पूर्ण होने पर वह लड़का और उसका मामा, उसी प्रकार यज्ञ करते, ब्राह्मणों को भोजन कराते तथा दक्षिणा देते हुए अपने घर की ओर चल पड़े ! रास्ते में उसी शहर में आए जहाँ उस लड़के का राजकुमारी से विवाह हुआ था ! वहाँ आकर उन्होंने यज्ञ आरम्भ कर दिया ! उस राजकुमारी के पिता राजा ने उस लड़के को पहचान लिया ! और महल में ले जाकर उसकी बहुत आवभगत की ! बहुत से दास-दासियों सहित आदरपूर्वक अपनी राजकुमारी और जमाई को महल विदा किया !
उस लड़के के मामा ने आकर जब यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है ! तब उनको विश्वास नहीं हुआ ! तब उसके मामा ने शपथपूर्वक – कहा कि आपका पुत्र अपनी पत्नी के साथ बहुत सारा धन साथ लेकर आया है ! तो सेठ प्रसन्नता से भर उठा ! और सेठ-सेठानी ख़ुशी-ख़ुशी नीचे आए !
बाहर आकर उन्होंने अपने पुत्र तथा अपनी पुत्रवधु का भरपूर स्वागत किया ! सभी बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे ! जो कोई सोमवार के व्रत को धारण करता है, अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है ! उसके सब दु:ख दूर होकर उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ! तथा इस लोक में नाना प्रकार के सुख भोगकर अन्त में सदाशिव के लोक को प्राप्त होता है !
सोमवार की आरती कथा-विधि :- पूर्वकाल में एक विधवा ब्राह्मणी प्रत्येक दिन प्रातः अपने पुत्र को साथ लेकर भिक्षा लेने गाँव में जाती और संध्या को वापस लौट आती ! भिक्षा में उसे जो मिलता उसी से अपना गुजरा चलाती ! और भगवान शिवजी के प्रदोष का व्रत भी करती ! एक दिन जब वह भिक्षा के लिए अपने पुत्र के साथ जा रही थी !
तो मार्ग में उसे विदर्भ देश का राजकुमार मिला ! शत्रुओं ने उसके पिता को मार दिया और उसको उसकी राजधानी से बाहर निकाल दिया था ! अतः वह मारा-मारा फिर रहा था ! ब्राह्मणी उसे अपने साथ ले आई और अपने पुत्र के साथ उसका पालन-पोषण करने लगी !
ब्राह्मण बालक घर लौट आया, परन्तु राजकुमार साथ नहीं आया क्योंकि वह अंशुमति नाम की गन्धर्व कन्या से बातें करने लगा था ! दूसरे दिन वह फिर अपने घर से वहाँ आया जहाँ अंशुमति अपने माता-पिता के साथ बैठी थी ! कुछ दिन पश्चात अंशुमति के माता-पिता ने राजकुमार धर्मगुप्त से कहा कि तुम विदर्भ देश के राजकुमार धर्मगुप्त हो !
हम श्री शंकर जी की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमति का विवाह तुम्हारे साथ कर देते हैं ! राजकुमार धर्मगुप्त का विवाह अंशुमति के साथ हो गया ! बाद में राजकुमार ने गन्धर्वराज की सेना की सहायता से विदर्भ देश पर अपना अधिकार कर लिया और ब्राह्मणी के पुत्र को अपना मंत्री बना लिया ! यथार्थ में यह सब उस ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत करने का फल था ! बस उसी समय से यह प्रदोष व्रत संसार में प्रतिष्ठित हुआ मन जाता हैं !
सोमवार की आरती कथा-विधि :- मृत्युलोक में भ्रमण करने की इच्छा करके एक समय भगवान भोलेनाथ माता पार्वती के साथ मृत्युलोक में पधारे ! भ्रमण करते-करते दोनों विदर्भ देश के अमरावती नाम की अति रमणीक नगरी में पहुँचे ! अमरावती नगरी अमरापुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी !
उसमें वहाँ के महाराज द्वारा बनवाया हुआ अति रमणीक भगवान शिवज का मन्दिर भी था ! भगवान शंकर माँ पार्वती के साथ उस मन्दिर में निवास करने लगे ! एक समय माता पार्वती भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न देख मनोविनोद करने की इच्छा से बोलीं-“हे महाराज! आज तो हम दोनों चौसर खेलेंगे !
शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे ! उसी समय मन्दिर का पुजारी ब्राह्मण मन्दिर में पूजा करने आया ! माता पार्वती ने पुजारी से प्रश्न किया-‘पुजारी जी बताओ ! इस बाजी में हम दोनों में से किसकी जीत होगी ! ब्राह्मण बिना सोचे विचारे शीघ्रता से बोल उठा कि महादेवजी की जीत होगी ! थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई !
पुजारी को श्राप-कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गए तब एक दिन देवलोक की अप्सरा शिव जी की पूजा हेतु उसी मन्दिर में पधारी ! उस अप्सरा को पुजारी के कोढ़ के कष्ट को देख उसने बड़े दयाभाव से उससे रोगी होने का कारण पूछा ! पुजारी ने निःसंकोच सारी बात उन्हें बता दी !
अप्सरा ने बताया-सोमवार को भक्ति के साथ व्रत करें ! स्वच्छ वस्त्र पहनें ! संध्या व उपासना के बाद आधा सेर गेहूँ का आटा लें ! उसके तीन अंग बनाएं और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोषकाल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करें ! तत्पश्चात् तीन अंगों में से एक शिवजी को अर्पण करें ! बाकी दो को शिवजी का प्रसाद समझकर उपस्थितजनों में बाँट दें और आप भी प्रसाद पाएं !
कुछ दिन बाद शिवजी और पार्वती फिर उस मन्दिर में पधारे ! ब्राह्मण को नीरोग देख पार्वतीजी ने ब्राह्मण से रोगमुक्त होने का उपाय पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत की कथा सुनाई ! पार्वती जी अति प्रसन्न हो ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछकर स्वयं व्रत करने को तैयार हो गईं ! व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए !
क्योंकि मेरा प्रिय मित्र ब्राह्मण बहुत दुःखी दिल से परदेस गया है ! मेरी उससे मिलने की बहुत इच्छा है ! कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया ! मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले- “हे मित्र ! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था !
शिवजी की कृपा से वह ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया ! नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी ! राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से अपनी कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया ! ब्राह्मण को बहुत-सा धन और सम्मान देकर सन्तुष्ट किया ! ब्राह्मण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा !
एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्न किया-हे प्राणनाथ! आपने ऐसा कौनसा भारी पुण्य किया था ! जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़कर आपको वरण किया? ब्राह्मण बोला-“हे प्राणप्रिय! मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था ! जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरूपवान पत्नी की प्राप्ति हुई है ! व्रत की महिमा सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ !
जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन उसने अपनी माता से प्रश्न किया कि- “हे माँ! तुमने कौन-सा व्रत एवं तप किया है ! जो मेरे जैसा पुत्र तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुआ ! माता ने सोलह सोमवार व्रत की कथा पुत्र को बताई ! पुत्र ने सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाले सरल व्रत को सुना तो वह भी राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथाविधि यह व्रत करने लगा !
व्रत शुरू होने के बाद एक देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसको राजकन्या के लिए वरण किया ! राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण-सम्पन्न ब्राह्मण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया ! वृद्ध राजा के दिवंगत हो जाने पर इसी ब्राह्मण युवक को सिंहासन पर बैठाया गया ! क्योंकि दिवंगत राजा के कोई पुत्र नहीं था ! राज्य का उत्तराधिकारी होकर भी वह ब्राह्मण-पुत्र सोलह सोमवार का व्रत करता रहा !
जब सत्रहवाँ सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से पूजन-सामग्री लेकर शिवपूजा के लिए शिवालय में चलने को कहा ! परन्तु उसकी पत्नी ने उसकी आज्ञा की परवाह न की ! दास-दासियों द्वारा सब सामग्रियाँ शिवालय भिजवा दीं ! परन्तु वह आप खुद नहीं गई !
आकाशवाणी सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा ! उसने मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछा-कि हे मन्त्रियों! मुझे आज शिवजी की आकाशवाणी हुई है ! कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर देगी ! राज्य में मन्त्री तथा सभासद आदि सब विस्मय और दुःख में डूब गए ! क्योंकि जिस कन्या के कारण इसको राज्य मिला है ! राजा उसी को निकालने का जाल रच रहा है !
राजा ने अपनी पत्नी को राजमहल से निकाल दिया ! रानी दुःखी हृदय से भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गयी ! बिना पदत्राण, फटे वस्त्र पहने, भूख से दुःखी धीरे-धीरे चलकर वह एक ग्राम में पहुँची ! वहाँ एक बुढ़िया सूत कातकर बेचने जाती थी ! रानी की करुण दशा देखकर बोली-“चल, तू मेरा सूत बिकवा दे ! मैं वृद्ध हूँ, भाव नहीं जानती हूँ !
यह बात सुन रानी ने बुढ़िया के सिर से सूत की गठरी उतारकर अपने सिर पर रख ली ! थोड़ी देर बाद आँधी आई और बुढ़िया का सूत पोटली सहित उड़ गया ! बेचारी बढिया पछताती रह गई !और रानी को अपने से दूर रहने को कहा ! इसके बाद रानी एक तेली के घर गई ! तो शिवजी के प्रकोप के कारण तेली के सब मटके उसी क्षण चटक गए !
उनको यह बात बताई ! पुजारी जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर पुजारी जी के पास लाए ! रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख पुजारी जी जान गए कि यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कुलीन स्त्री हैं ! पुजारी ने रानी से कहा कि-‘पुत्री! मैं तुमको अपनी पुत्री के समान रखूगा ! तुम मेरे आश्रम में ही रहो !
मैं तुमको किसी प्रकार का कष्ट नहीं दूंगा ! पुजारी जी के वचन सुनकर रानी को धीरज हुआ ! वह आश्रम में रहने लगी ! रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरकर लाती उसमें भी कीड़े पड़ जाते ! रानी की यह दशा देख पुजारी जी भी बहुत दुःखी हुए !
पुजारी जी की बात मानकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत किए ! सत्रहवें सोमवार को सोमवार की आरती कथा-विधि को विधि-विधान सहित पूजन किया ! उस पूजन के प्रभाव से राजा के हृदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया, न जाने कहाँ-कहाँ भटकती होगी ! उसे ढूँढना चाहिए ! यह सोच रानी को तलाश करने के लिए राजा ने चारों दिशाओं में दूत भेजे !
पुजारी जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की अनुमति दे दी ! पुजारी जी की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के साथ महल में आई ! नगरवासियों ने नगर द्वार तथा नगर को तोरण एवं बन्दनवारों से विविध-विविध प्रकार से सजाया ! घर-घर में मंगल गान होने लगे ! पंडितों ने विविध वेद-मंत्रों का उच्चारण कर अपनी राजरानी का स्वागत किया !
ऐसी अवस्था में रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया ! महाराज ने ब्राह्मणों को अनेक तरह से दान आदि देकर संतुष्ट किया ! याचकों को धन-धान्य दिया ! नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये ! जहाँ भूखों को भोजन मिलता था !
जो मनुष्य मनसा-वाचा-कर्मणा भक्ति सहित सोलह सोमवार का व्रत एवं पूजन इत्यादि विधिवत रूप से करता हैं ! वह इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता हैं ! यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला हैं !
इति सोमवार की आरती कथा–विधि सम्पूर्ण